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सरस्वती अष्टक
अम्ब, थ्वदेय पद पङ्कज पांसु लेस,
संबन्द बन्दुरथरा रसना थ्वधीयम् ।
संभयुधधिपदमप्य अम्रुथथि रम्यं,
निम्भयथे किमुथ भोउम पदानि थस्य ॥१॥
मथ, स्थ्वधेय करुनंरुथ पूर्ण दृष्टि,
अथक्वचिद्विधि वसन मनुजे न चेतः स्यतः ।
का थस्य घोर अपि धभ्यवाःअरनिध्र,
भीथ्यधिकेषु समा भवमुपेयिवल्सु ॥२॥
वनि रेम गिरि सुथेथि च रूप भेदि,
क्षोणी जुषां विविध मङ्गल माध धासि ।
ननीयसीं थ्व विभुथिमहो विवेक्थुं,
क्षीनिभवथ्यकृथकोपि वच प्रपञ्च ॥३॥
सर्वग्नाथ गिरि सुथ कमिथिर विपक्ष,
गर्वचिधकुसलथदिविशद गुरोस्च ।
चर्वार्थ सबध घटना पतुथ कवीनां,
सर्वं थ्वधीय करुणा कनिक विवर्थ ॥४॥
मूक कविर्जद इह प्रथि भवधग्र्यो,
भीकुन्द दुर्भलमधिर धरणी विज्हेथ ।
निष्किञ्चनो निधिपधिर भवथि थ्वधीय,
मेकं कदक्षमवलंभ्य जगथ्सविथ्री ॥५॥
वर्णथ्मिके, हिम सुधाकर संख कुण्ड,
वर्नभि राम थानु वल्लरी विस्व वन्ध्ये ।
कर्णाथ दीर्घ करुनर्ध्र कदक्ष पथि,
पूर्ण अखिलर्थमिम मासु विदथ्स्व देवी ॥६॥
कालं कियन्थमयि थेय चररविन्ध,
मलंभ्य हन्थ विलपामि विलोलचेथ ।
बलं कुरुश्व कृथा कृथ्यमिमं शुभिअक,
मूलं निधाय करुअर्ध्र मपन्गमस्मिन ॥७॥
आनन्द हेथु मयि थेय करुणां विहाय,
नूनं न किन्चिदखिलेसि विलोकयामि ।
धूनं दयर्हमगथिं करुनंरुथद्रै,
रेनं शिशुं शिशिरयषु कदक्षपत्है ॥८॥
इमं पदेध्य प्रयथस्थावोध्घ,
मनन्य चेथ जगथं जनन्य ।
स विध्वधरधिथ पद पीते,
लभेथ सर्वं पुर्षर्थसर्थं ॥९॥
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